Sunday 29 September 2013

सिर्फ थोड़ी सी मोहब्बत चाहिए

कब हमें उनकी इनायत चाहिए
सिर्फ थोड़ी सी मोहब्बत चाहिए

थोड़ा लहज़े में नज़ाकत चाहिए 
और आँखों में शराफ़त चाहिए

ख्व़ाबगाहों से निकल आयें जनाब 
ज़िंदगी में कुछ हकीक़त चाहिए

रब से ज़ायद मांगती कुछ भी नहीं 
मुझको बस हस्बे ज़रूरत चाहिए

ज़िंदगी आसान होती जायेगी
रहमत ए आलम की रहमत चाहिए

आप ने सबको नसीहत की जनाब
आपको भी कुछ नसीहत चाहिए

इन बुजुर्गों से सदा हमको सिया
रहनुमाई और शफ़क़त चाहिए

इस ज़बां पर भी ज़रा काबू रहे
दिल में भी थोड़ी मुरव्वत चाहिए

शेर गोई है नहीं आसाँ सिया
इल्म की भी थोड़ी दौलत चाहिए

ऐ सिया क़दमों को मां के चूम लो
तुम को गर दुनिया में जन्नत चाहिए

Tuesday 24 September 2013

यूं तो जीना मुहाल लगता है

हर तरफ एक जाल लगता है 
यूं तो जीना मुहाल लगता है 

चाँद उदास तनहा सा 
मेरे जैसा निढाल लगता है 

इस बरस सब नजूम उलटे हैं 
साढ़े साती ये साल लगता है

कैसे उसने रिझा लिया सबको 
वो यशोदा का लाल लगता है

तुझसे मिलना है जिंदगी का सबब
तेरा मिलना मुहाल लगता है

बेहिसी का गुबार छँटने लगा
दिल में फ़िर कुछ उबाल लगता है

शौक़ अब बोझ बन गया सर का
ये तो जी का वबाल लगता है

एक एक शेर इस ग़ज़ल का सिया
तेरे दिल का ही हाल लगता है

Har taraf ek jaal lagta hai,
yooN to jeena muhaal lagta hai

chand tu bhi uadaas tanha hai
mere jaisa nidhal lagta hai

Is baras sab nujoom ulte haiN,
Saadhe saati yeh saal lagta hai

Kaise usne rijha liya sabko,
Woh Yashoda ka lal lagta hai.

Tujh se milna, hai Zindagi ka sabab,
Tera milna muhal lagta hai

Behisi ka ghubar chhatne laga,
Dil mein phir kuchh ubaal lagta hai.

Shauq ab bojh ban gaya sar ka
Yeh to ji ka wabaal lagta hai.

ek ek sher is ghazal ka siya
tere dil ka hi haal lagta hai

दर्द ने मुझको सँवारा और है

ज़ख्म भी दिल का उभारा और है 
दर्द ने मुझको सँवारा और है 

कल तलक़ थे जिनको हम जां से अज़ीज़ 
आज उनके दिल को प्यारा और है

कितना बतलाओ मैं समझौता करूँ
अब मेरा मुश्किल गुज़ारा और है

सब सियासत में लगे मिलते हैं अब
तेरी महफ़िल का नज़ारा और है

ज़िंदगी तूने तो बस धोके दिए
मौत का लेकिन इशारा और है

इस जहाँ में अब सिया रक्खा है क्या
ये नहीं रास्ता तुम्हारा और है

Zakhm bhi dil ka ubhara aur hai
Dard ne mujhko sanwara aur hai

Kaal talak they jinko ham jaaN se aziz
Aaj unke dil ko pyaara aur hai

kitna batlao main samajhautaa karuN
ab mira mushkil guzara aur hai

sab siyasat mein lage milte haiN, ab,
Teri mehfil ka nazara aur hai

zindagi tune to bus dhoke diye
maut ka lekin ishara aur hai

is jahan mein ab siya rakkha hai kya
ye nahiN rasta tumahara aur hai

siya

Saturday 14 September 2013

करेंगे लोग तेरा एहतराम कितने दिन

रखेगे अपनी ज़बाँ पर लगाम कितने दिन 
करेंगे लोग तेरा एहतराम कितने दिन 

कभी तो क़ुव्वत ए बर्दाश्त खत्म भी होगी
सब्र से लेगा भला कोई काम कितने  दिन 
 
कभी तो जागेगी अपनी अना ग़ुलामी से 
करेंगे  इस तरह झुक कर सलाम कितने दिन 

पलों में भूलना आदत है इस ज़माने की 
रहेगा याद यहाँ तेरा नाम और कितने दिन 

जो तल्ख़ लहज़ा तेरा यूहीं  बरक़रार रहा 
तो तुझसे होगा मेरा यूँ कलाम कितने दिन 

सिया चलो ये अदावत यहीं पे ख़त्म करे 
रहेगा दिल में तेरे इंतेक़ाम कितने दिन 

rakhege apni zaban par lagaam kitne din 
karenge log tera ehtraam kitne din 

kabhi to quvvat e bardasht khtm bhi hogi
sabr se lega bhala koi kaam kitne din

kabhi to jagegi apni ana gulami se
karege is tarah jhuk kar salaam, kitne din 

palo mein bhulna aadat hain is zamane ki rahega yaad yahan tera naam kitne din
jo talkh lehja tera yuheen barqaraar raha 
to tujhse hoga mera yun kalaam kitne din 

siya chalo ye adavat yaheen pe khtam kare 
rahega dil mein tere inteqaam kitne din 

shrdhanjali

नवजीवन का फूल खिलाया करते थे
सब के दुःख में साथ निभाया करते थे 
 निश्छल प्रेम से अपने कौशल से 
हर उलझी डोरी सुलझाया करते थे 
मुर्दा  ज़ेहनो में उम्मीद जगा कर वो 
जीवन का नवगीत सुनाया करते थे 

आओ उनके जैसे ही बन जाए हम 
ख़ुद महके और दुनिया  को महकाए हम 

कहूं भी कैसे ग़ज़ल दानिश ए निसाब नहीं

है मेरे शेर में अब भी वोह आब ओ ताब नहीं
कहूं भी कैसे ग़ज़ल दानिश ए निसाब नहीं 

ग़म ए जहान का रक्खा कोई  हिसाब नहीं 
मिले हैं खार ही, हर शाख पर गुलाब नहीं 

कोई बताए के सम्भलूँ  तो किस तरह सम्भलूँ 
मिली हैं ठोकरें इतनी की कुछ हिसाब नहीं 

हिजाब में है हर इक राज़ मेरी हस्ती का 
जिसे वो शौक से पढ़ मैं वो किताब नहीं 

ये  बेरुख़ी,ये अज़ीयत उतर गई दिल में 
तुम्हारे ज़ुल्म का सच है  कोई हिसाब नहीं 

सिया सुकून से बाक़ी जो है  गुज़र जाए 
अब और रंज सहूँ इतनी मुझ में ताब नहीं 

Hai mere she'r mein ab bhi woh aab o taab nahi'N kahoon bhi kaise ghazal daanishe nisab nahi'N

gham-e-jahan ka rakkha koi hisab nahee'N
miley hain khar hee, har shaakh per gulaab nahi'N


koi bataaye ke sambhlooN to kis tarah sambhlooN
mili hai'n thokre'N itni ki kuch hisaab nahi'N
 Hijaab mei hai har eik raaz meri hasti ka
jise wo shouq se padh le main wo kitab nahee'N

Yeh berukhi, yeh azeeyat utar gai dil mei
 tumahare zulm ka sach hai  koi  hisaab nahee'N

siya sukoon se baki hai guzar jaaye 
Ab aur ranj sahooN itni mujh men taab nahi'N

नफरतों का सराब मत पूछो

हाल दिल का खराब मत पूछो 
याद करना अज़ाब मत पूछो 

जिंदगी का निसाब मत पूछो 
नफरतों का सराब मत पूछो 

अब तो कोई कशिश नहीं बाकी 
मेरा अहद ए शबाब मत पूछो 

चश्म ए तर राज़ सारा कह देगी 
दर्द ओ ग़म का हिसाब मत पूछो

किस खता की सज़ा मिली है मुझे
क्या मैं दूंगी जवाब मत पूछो

बेरुखी की ये इन्तेहा थी बस
तल्ख़ इसका जवाब मत पूछो

मुद्दतों लग गई समझने में
रुख पे कितने नक़ाब मत पूछो

हुक्मरानों के आगे इक न चली
कितना खाना खराब मत पूछो

Thursday 12 September 2013

सुब्ह में भी रात जैसी बात है

कैसा सन्नाटा अज़ब सी  रात है 
सुब्ह में भी रात जैसी बात है 

देख ले ये एक सांसो का दिया 
मन  के आँगन में जले दिन रात है 

आज तो खाली है ये कासा मेरा 
जिंदगी ने दी ये कैसी मात है  

शहर भी जंगल बने है देखिये 
हर क़दम पर घात है प्रतिघात है 

हो गया हम पर करम सरकार का 
भूख की हमको मिली सौगात है 

आँख के आँसू हैं  मुझको क़ीमती 
मत कहो सब दर्द की खैरात है 

आदमी अपना ही दुश्मन है सिया 
हाँ यहीं सबसे बड़ा आघात हैं 

अपनी फिक्र बढाया कर

सूखी रोटी खाया कर 
फिर भी तू मुस्काया कर 

मेरे दिल के आँगन में
जब जी चाहे आया कर

औरों की ख़िदमत में भी
अपने को उलझाया कर

वर्तमान में जीता रह
माज़ी को दफ़नाया कर

नफ़रत के हर जंगल को
माचिस भी दिखलाया कर

बांध नए मज़मून सिया
अपनी फिक्र बढाया कर

sukhi roti khaya kar
fhir bhi tu muskaya kar

jo bhi hai beghar unke
sar ke upar saya kar

mere dil ki aangan mein
jab jee chahe aaya kar

auro ki khidmat mein bhi
apne ko uljhaya kar

vartman mein jeeta rah
mazi ko dafnaya kar

nafrat ke har jungle ko
machis bhi dikhlaya kar

bandh naye mazmoon siya
apni fiqr badhaya kar