भूल बैठा है आज दर को तेरे
क्या हुआ है ख़ुदा बशर को तेरे
आग खाती है जैसे लकड़ी को
खा गया है हसद हुनर को तेरे.
खा गया है हसद हुनर को तेरे.
अपने लोगों में अजनबी है तू
क्या नज़र लग गयी है घर को तेरे
हौसला टूटने सा लगता है
ज़िंदगी देख कर सफर को तेरे
मैं भी रखती गयी जबीं अपनी
पावँ पड़ते गए जिधर तेरे
उफ़ ये दस्तार की हवस तौबा
क्या बचा पाएगी ये सर को तेरे
मैं भटकती रही हूँ राहों में
कोई रस्ता मिला न घर को तेरे
फन जिन्हें तूने कल सिखाया था
आज़माते हैं अब हुनर को तेरे