Monday 12 December 2011

फिर से जीने की आरज़ू होगी.

बात होगी तो रू -ब- रू होगी
आँखों आँखों में गुफ्तगू होगी .

बात चलती रहेगी ग़ालिब की
मीर की भी कभू कभू होगी .

सामने मेरे जब भी तुम होगे
फिर से जीने की आरज़ू होगी.

जिस में मंजिल का कोई ज़िक्र न हो
एक ऐसी भी जुस्तजू होगी..

काम आएगी मेरी जिंदादिली -
जब कभी मौत रू -ब -रू होगी

आपको मैं संभाल कर रक्खूं .
इसमें मेरी भी आबरू होगी .

हर क़दम फूँक फूँक रखना सिया
सब की नज़रों में सिर्फ तू होगी .

2 comments:

  1. वाह वाह सिया जी...
    बेहद खूबसूरत गज़ल..

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  2. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल .....लाजवाब अशआर से आरास्ता एक ऐसा शाहकार कि जिसे बार बार पढ़ने को जी चाहता है ......वाह

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