Thursday 26 May 2016

ज़ह्र को जो दवा समझता है

ज़ह्र को जो दवा समझता है
वो मरज़ को शिफ़ा समझता है
क्या उदासी है मेरे चेहरे पे
मेरा दुःख आइना समझता है
कितनी तनहा हूँ मैं हुजूम में भी
तू कहाँ जानता समझता है
हूक उठती है मेरे सीने से
और वो क़हक़हा समझता है
जिससे वाबस्ता हूँ मैं शिद्दत से
क्या वो हर्फ़ ए वफ़ा समझता है
अस्ल में शेर कहने वाला ही
दर्द तख़लीक़ का समझता है
कोई देखे तो अंदरून उसका
खुद को जो पारसा समझता है
जाने क्या क्या गुमान हैं उसको
जाने वो ख़ुद को क्या समझता है
नाव को किस जगह डुबोना हैं
ये मेरा नाख़ुदा समझता है
उसकी मन्ज़िल हूँ मैं मगर ज़ालिम
वो फ़क़त रास्ता समझता है
राय उसको सिया मैं देती हूँ
जो मेरा मश्वरा समझता है
siya

1 comment:

  1. The poetess is a store house of emotion.Her emotional outbursts are unparrelled.

    ReplyDelete