शाम ए ग़म की सहर न हो जाए
ज़िंदगी मुख़्तसर न हो जाए
देख उनको खबर न हो जाए
फ़िर बला मेरे सर न हो जाये
बाज़ आ मेरा दिल दुखाने से
तेरा बर्बाद घर न हो जाए
हो न मंज़िल मुझे कभी हासिल
ख़त्म मेरा सफर न हो जाए
छोड़ कर चल दिए हो तुम जिसको
वो कहीं दर बदर न हो जाय
इस क़दर मत कुरेद माज़ी को
ज़ख्म दिल का शरर न हो जाए
इस क़दर पेश पेश मत रहना
दुनिया ज़ेर ओ ज़बर न हो जाए
उसकी नज़रों से बच रही हूँ मैं
जादुओं का असर न हो जाए
ए सिया मत गुज़र दो राहे से
फिर जुदा हमसफ़र न हो जाए
------------------------------ ----------
No comments:
Post a Comment