Saturday 30 May 2015

कैसे जीतोगे अगर हार से डर लगता है

क्यूँ  तुम्हें लश्कर ए जर्रार  से डर लगता है 
कैसे जीतोगे अगर  हार से डर लगता है 

एक हल्की सी भी आहट से सहम जाती हूँ 
अब तो हर साया ए दीवार से डर लगता है 

आईने की भी निगाहों  में मुहब्बत  न रही 
 अब  हमें बा ख़ुदा  सिंगार  से  डर  लगता  है

तुम में और हम  में हमेशा से ये ही फर्क  रहा 
जीत से  हम को तुम्हें हार  से  डर लगता है 

सोचे-समझे बिना जो  कुछ भी उगल देते हैं 
उनकी बेबाक़ी ए गुफ़्तार से डर लगता है 

फूल तो ख़ार के दामन से लगे रहते हैं 
फूल ये कैसे कहे ख़ार से डर लगता है .

बात सच कहने को कह दूँ मैं बहरहाल मगर 
सर पे लटकी हुई तलवार से डर लगता है 

नाखुदा से कोई उम्मीद नहीं है बाक़ी 
अब हमें वाकई मंझधार से डर लगता है.

और कितना पढ़े हम  खून से लथपथ खबरें  
अब हमें सुब्ह के अखबार से डर लगता है

 वक़्त के पावं कहीं रौंद न डाले हमको 
ए सिया वक़्त की रफ़्तार से डर लगता है

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