Wednesday, 20 May 2015

मुझ पर तेरा फिर से इक एहसान हुआ

दिल में मेरे पैदा फिर अरमान हुआ
मुझ पर तेरा फिर से इक एहसान हुआ
जाने कैसा ये मेरा सम्मान हुआ
मुझको लगता है मेरा अपमान हुआ
वक़्त ने मेरे चेहरे पर ये क्या लिक्खा
देख के मुझको आईना हैरान हुआ
जान बूझ कर हमने धोका खाया है
सोच समझ कर भी ये दिल नादान हुआ
जिसकी ख़ातिर दुनिया से मैं ग़ाफ़िल थी
आज हुनर वोही मेरी पहचान हुआ
इन होठों पर हँसी न आये आज के बाद
ज़ारी मेरे हक़ में ये फरमान हुआ,
दुनिया ने किस दौर में किसको बख़्शा हैं
सीता का भी इस जग में अपमान हुआ
siya

3 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1982 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श बेगाना लगा
    हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

    नफरत से की गयी चोट से हर जखम हमने सह लिया
    घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

    सुन्दर सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
    कभी इधर भी पधारें

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