क्या करें जितना सब्र करते हैं
ज़ख्म फ़िर भी मेरे उभरते हैं
मौत का कोई दिल में ख़ौफ़ नहीं
हम तो इस ज़िंदगी से डरते हैं
शोर करती हैं दिल की धड़कन भी
जब ख्यालों से वो गुज़रते हैं
हमने मोहतात कर लिया खुद को
क्योकि रुसवाइयों से डरते हैं
रोज़ जीते हैं थोड़ा थोड़ा हम
रोज़ ही थोड़ा थोड़ा मरते है
रोज़ ही थोड़ा थोड़ा मरते है
खुद को आया हुनर न जीने का
और दुनिया पे तंज़ करते हैं
ए ख़ुदा तू ही अब हिफाज़त कर
घर की देहलीज़ पार करते हैं
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