मिलकियत है यहीं और ये ही मेरी जागीरें
चंद अशआर मेरे और मेरी तस्वीरें
अश्क़ पलकों से गिर के टूट गए काग़ज़ पर
रोज़ बनती हैं बिगड़ती हैं यहाँ तक़दीरें
नाज़ करते हो लकीरों पे भला क्यों इतना
रोज़ बनती हैं बिगड़ती हैं यहाँ तक़दीरें
आसमाँ अपनी बुलंदी पे न इतरा इतना
टूटने वाली हैं पाँवों की मेरी जंज़ीरे
कैसे नज़रें मैं चुराऊँगी तेरे जलवों से
सामने रहती हैं हरदम जो तेरी तनवीरें
तू अजल से ही था इंसान सरापा अफज़ल
तुमने महसूस कहाँ की हैं अपनी तौकीरें
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