Tuesday, 14 April 2015

गुंजाइशें नहीं हैं अब कोई सिलसिले की

कुछ भी रही न तुझसे अब बात राब्ते की 
गुंजाइशें नहीं हैं अब कोई सिलसिले की 

जिनके फ़िराक में हम बीमार हो गए हैं 
ज़हमत न की उन्होंने  मेरा हाल पूछने की 

शबनम की बूंदे  आकर पलकों पे तैरती हैं 
कुछ टीसती हैं यादें माजी के आईने की 

तुमने सवाल का यूँ फ़ौरन जवाब माँगा 
हमको मिली न मोहलत कुछ  बात सोचने की 

अब लौट के कभी भी मैं आ सकूँ न शायद 
दूरी न होगी कम अब इस  दिल के फासले की 

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