Friday, 27 March 2015

अपने ज़ख्मों को हम छुपाते हैं

ज़ब्त कर कर के मुस्कुराते हैं 
लज्ज़त-ए-दर्द यूँ बढ़ाते है

बात कब दिल की लब पे लाते हैं 
अपने ज़ख्मों को हम छुपाते हैं 

मौत सर पर खड़ी हुई है जब 
याद अब सब  गुनाह आते हैं 

खुद में आया नज़र न ऐब कोई
आईने में कमी बताते हैं 

मैंने राहें चुनी रफ़ाक़त की 
फिर भी नफरत की चोट खाते हैं 

दिल  से उठने लगा कोई तूफ़ान 
खौफ से होंठ थरथराते हैं  

क्यों न  मेहफ़ूज़ रखूँ तेरे  ख्याल 
ये अकेले  में काम आते हैं 

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