ख़ुद को इन तल्ख़ी ए हालात में ढालूँ कैसे
अपनी बेचैन तबियत मैं सम्भालूँ कैसे
ज़ोर इस ज़ेहन पे डालो न सभी कहते है
फिर घुटन अपनी ये बाहर मैं निकालूँ कैसे
जिनकी ताबीरों में पिन्हा हैं सदा महरूमी
अपने सोये हुए ख़्वाबों को जगा लूँ कैसे
सिर्फ एहसास मुक़य्यद है शिकस्ता दिल में
इस स्याह खाने में अरमान सजा लूँ कैसे
रोके रखती हूँ मैं पलकों पे ही सावन की झड़ी
ग़म की बरसात को बाहर मैं निकालूँ कैसे
घर के ग़म चैन से जीने नहीं देते मुझ को
झूटी खुशियों के लिए ख़ुद को मना लूँ कैसे
ज़िंदगी रेंगती है मौत की राहों पे सिया
जो घडी आये क़ज़ा की तो मैं टालूँ कैसे
Thursday, 8 January 2015
अपनी बेचैन तबियत मैं सम्भालूँ कैसे
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उम्दा...
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