उससे दिल तो कभी मिला ही नहीं
दिल से वो दूर तो हुआ ही नहीं
सारी दुनिया की फ़िक्र हैं उसको
मेरे बारे में सोचता ही नहीं
कैसे मैं अपने आप को देखूँ
मेरे कब्ज़े में आइना ही नहीं
चल दिया फेर कर नज़र ऐसे
जैसे मुझको वो जानता ही नहीं
हाथ उठते तो है दुआ के लिए
और लब पर कोई दुआ ही नहीं
बे ज़मीरी की इन्तेहा ये हैं
ज़ुल्म कहता हैं मैं बुरा ही नहीं
मुझको इस ख़ुदग़रज़ ज़माने से
नेकियों का मिला सिला ही नहीं
सिया
सुन्दर रचना...
ReplyDelete