Thursday, 6 November 2014

नज़्म - नहीं कोई भी आएगा



ये जो हर रोज़ ओ शब अपनी
हर इक दुःख दर्द की कड़ियाँ
पिरो लेती हूँ शब्दों से 
न जाने क्या क्या कहती हूँ
फ़िज़ूल उलझी ही रहती हूँ
कभी लगता है ऐसा भी
के ये हर पल की वहशत से
कभी थक हार के इक दिन
किसी बेनाम कोने में
चली जाऊँ बहुत ही दूर
जहां अपने सिवा कोई
नहीं पहचान सकता हो
मुझे फिर ढूंढ़ते , आवाज़ देते
तुम चले आओ
कहो आकर मुझे तुम ये
मुझे क्यों छोड़ कर तनहा
बताये बिन चली आई
तुम्हे एहसास है कोई
मेरा क्या हाल था तुम बिन
मगर मैं जानती हूँ ये
नहीं कोई भी आएगा ...

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