Tuesday, 10 June 2014

इक तजरूबे के बाद समझ में वो आयी बात

जिनकी हँसी में हमने हमेशा उड़ायी बात 
इक तजरूबे के बाद समझ में वो  आयी बात 

तुमने अजीब वक़्त पे अपनी उठायी  बात 
यह शोर है के देती नहीं कुछ सुनायी बात 

मैं ख़िदमत ए सुखन में रही हर्फ़ की तरह 
फिर लफ्ज़ लफ्ज़ जोड़ के मैंने कमायी बात 

जब तक ज़बाँ से निकली नहीं थी ,मेरी ही थी 
मुँह से निकल के हो गयी पल में परायी बात 

अब क्या हुआ के खुल के जो कहते नहीं हो कुछ 
तुम से कभी भी हमने न कोई छुपायी बात 

इक पल  में मेरी बात का अफ़साना कर दिया 
कितने यक़ी से आपको मैंने बतायी बात 

नफरत लिए बिछड़ने से बेहतर है ये सिया 
तुम भी भुला दो मैंने भी सारी भुलायी बात 

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