जिनकी हँसी में हमने हमेशा उड़ायी बात
इक तजरूबे के बाद समझ में वो आयी बात
तुमने अजीब वक़्त पे अपनी उठायी बात
यह शोर है के देती नहीं कुछ सुनायी बात
मैं ख़िदमत ए सुखन में रही हर्फ़ की तरह
फिर लफ्ज़ लफ्ज़ जोड़ के मैंने कमायी बात
जब तक ज़बाँ से निकली नहीं थी ,मेरी ही थी
मुँह से निकल के हो गयी पल में परायी बात
अब क्या हुआ के खुल के जो कहते नहीं हो कुछ
तुम से कभी भी हमने न कोई छुपायी बात
इक पल में मेरी बात का अफ़साना कर दिया
कितने यक़ी से आपको मैंने बतायी बात
नफरत लिए बिछड़ने से बेहतर है ये सिया
तुम भी भुला दो मैंने भी सारी भुलायी बात
No comments:
Post a Comment