वाक़िफ़ न अपनी रात , न अपनी सहर से मैं
अब खुद को देखती हूँ तुम्हारी नज़र से मैं
उनसे निगाह मिलते ही पल में बिखर गई
खुद को बहुत संभाल के निकली थी घर से मैं
रहती हूँ सादगी की हिफाज़त में हर घड़ी
खुद को बचाये रखती हूँ दुनिया के शर से मैं
परवान चढ़ रहा है मेरी ज़िन्दगी का क़द
इक बेल की तरह से हूँ लिपटी शजर से मैं
ये कौन सा मक़ाम तेरी चाहतों का है
हद्दे निगाह तू ही है गुजरूं जिधर से मैं
जिस से मुझे मिली है नई ज़िन्दगी सिया
क्यूँ उसका हाथ छोड़ दूँ दुनिया के डर से मैं
waqif n apni raat, n apni sahar se main
ab khud ko dekhti hoon tumahari nazar se main
unse nigaah milte he pal mei'n bikhar gayi
khud ko bahut sambhal ke nikali thi ghar se main
rahti hooN sadgi ki hifazat mein har ghadi
khud ko bachaye rakhti hoon duniya ke shar se main
parwan chadh raha hai meri zindgi ka qad
ik bel ki tarah se hi lipti shazar se main
ye kaun sa maqaam teri chahto ka hai
had e nigaah tu he hai guzru'n jidhar se main
jisse mujhe mili hai nayi zindgi siya
kyu'N uska hath chhod du'N duniya ke dar se main ..
Tuesday, 10 June 2014
अब खुद को देखती हूँ तुम्हारी नज़र से मैं
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-06-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1641 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteइस हाथ को तुम थाम लो। सुंदर गज़ल।
ReplyDeleteये लाल पर नीले अक्षर पढे नही जा रहे।
ये कौन सा मक़ाम तेरी चाहतों का है
ReplyDeleteहद्दे निगाह तू ही है गुजरूं जिधर से मैं
सुन्दर ग़ज़ल, सुन्दर प्रस्तुति