Tuesday, 10 June 2014

अब खुद को देखती हूँ तुम्हारी नज़र से मैं

वाक़िफ़ न अपनी रात , न अपनी सहर से मैं 
अब खुद को देखती हूँ तुम्हारी नज़र से मैं 

उनसे निगाह मिलते ही पल में बिखर गई 
खुद को बहुत संभाल के निकली थी घर से मैं 

रहती हूँ सादगी की हिफाज़त में हर घड़ी 
खुद को बचाये रखती हूँ दुनिया के शर से मैं

परवान   चढ़ रहा है मेरी ज़िन्दगी का क़द 
इक बेल की  तरह से हूँ लिपटी शजर से मैं 

ये कौन सा मक़ाम तेरी चाहतों का है 
हद्दे निगाह तू ही है गुजरूं जिधर से मैं 

जिस से मुझे मिली है  नई  ज़िन्दगी  सिया 
क्यूँ  उसका   हाथ  छोड़  दूँ दुनिया के डर  से मैं 


waqif n apni raat, n apni sahar se main 
ab khud ko dekhti hoon tumahari nazar se main 

unse nigaah milte he pal mei'n bikhar gayi 
khud ko bahut sambhal ke nikali thi ghar se main 

rahti hooN sadgi ki hifazat mein har ghadi 
khud ko bachaye rakhti hoon duniya ke shar se main 

parwan chadh raha hai meri zindgi ka qad 
ik bel ki tarah se hi lipti shazar se main 

ye kaun sa maqaam teri chahto ka hai 
had e nigaah tu he hai guzru'n jidhar se main 

jisse mujhe  mili hai nayi zindgi siya 
kyu'N uska hath chhod du'N duniya ke dar se main ..

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-06-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1641 में दिया गया है
    आभार

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  3. इस हाथ को तुम थाम लो। सुंदर गज़ल।

    ये लाल पर नीले अक्षर पढे नही जा रहे।

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  4. ये कौन सा मक़ाम तेरी चाहतों का है
    हद्दे निगाह तू ही है गुजरूं जिधर से मैं
    सुन्दर ग़ज़ल, सुन्दर प्रस्तुति

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