Friday 6 May 2016

श्रमिक दिवस पर लिखी एक नज़्म


तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
बदहाली का जीवन जीने पर मजबूर
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
झुलसा देने वाली भीषण गर्मी हो
हाड़ कंपाने वाली चाहे सर्दी हो
दर-दर की ठोकर खाने को हैं मजबूर .
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
भूख प्यास पीड़ा को वो क्या समझेंगे
मजबूरों के दुःख को वो क्या जानेंगे
बड़ी बड़ी बाते कर के जो हैं मशहूर
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
बेबस और बेहाल यहाँ पर इतने हैं
जल संकट के कारण जाने कितने हैं
दूषित पानी पीने पर भी हैं मजबूर
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
पड़ी आपदा फसलें सब बर्बाद हुई
उस बेबस से कहाँ कहाँ फ़रियाद हुई
आत्महत्या करने पर जो है मजबूर
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
सिसक--सिसक कैसे जीवन जी पायें
कभी चैन के पल दो पल हम भी पायें
इसी आस में बैठे हैं जो थक कर चूर
अब तो करदे रब्बा इनकी मुश्किल दूर
भर दें मालिक़ इनके जीवन में भी नूर
तकलीफों से जूझ रहे हैं जो मज़दूर
siya

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