तू हक़ीक़त से निकल कर दास्ताँ हो जाएगा
तब ज़माने पर तेरा जज़्बा अयाँ हो जाएगा
तुम सुलगते ही रहोगे हिज्र में मेरे सदा 
और ये ख़्वाबों भरा आँगन धुवाँ हो जायेगा 
छोड़ जाऊँगी तुम्हारा हँसता बसता  ये जहाँ 
ये जो इक घर है कभी सूना मकाँ हो जाएगा 
मैं ज़मीं ज़ादी हूँ रिश्ता है मेरा इस ख़ाक़ से 
क्या ख़बर थी मेरा दुश्मन आसमाँ हो जाएगा 
तू कहाँ ईमान लाने पर तुली है ए सिया 
''ऐसी बातो से वो क़ाफिर बदगुमां हो जाएगा ''
 
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