Tuesday, 3 March 2015

फ़ासलें देख डर रही हूँ मैं

तेरे दिल से उतर रही हूँ मैं
आज महसूस कर रही हूँ मैं
ज़िंदगी बिन तेरे क़बूल नहीं
फ़ासलें देख डर रही हूँ मैं
मौत तो एक बार मारेगी
रोज़ किस्तों में मर रही हूँ मैं
इल्तेजा है के दूर मत जाओ
रेज़ा रेज़ा बिखर रही हूँ मैं
फिर सलीक़े से वादी ए ग़म में
हौले हौले उतर रही हूँ मैं
तुमसे वादा किया था जी लूँगी
आज उससे मुकर रही हूँ मैं
एक नन्हा चराग़ रोशन है
इन हवाओं से डर रही हूँ मैं
तेरी फ़ुरक़त में आज रो रो कर
ज़ख्म अश्कों से भर रही हूँ मैं
siya

7 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5-3-2015 को चर्चा मंच पर हम कहाँ जा रहे हैं { चर्चा - 1908 } पर दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. मानसिकता का और मनोभावों का बहुत ही सुंदर चित्रण.

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  4. बहुत भावपूर्ण ग़ज़ल लिखी है आपने.
    होली की ढेर सारी शुभकामना.
    मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
    http://iwillrocknow.blogspot.in/

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  5. वाह! बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल है. कितनी खूबसूरती से मनोभावों को बयान किया है.

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  6. तुमसे वादा किया था जी लूँगी
    आज उससे मुकर रही हूँ मैं
    मनोभावों की विवशता को बताती सुन्दर रचना

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