Friday 3 January 2014

नज़्म .....उड़ान



आसमानों में पंछियों की  क़तार 
देखती हूँ तो सोचती हूँ मैं 
लौट के जब ये घर को आयेंगे 
कुछ नए तजरबे भी लायेंगे 

नन्हें नन्हें थे जब यहीं चूजे 
इनकी माँ ढूँढ कर इक इक दाना 
चोंच में इनके डाला करती थी 
इस तरह इनको पाला करती थी 

जब बड़े हो गए यहीं पंछी 
और सीखा उड़ान भी भरना 
ख़ुद ये करते है तय सफ़र अपना 
हर तजरबे से सीखते है ये 
देखते है बहार का सपना 

ज़िंदगी सीखते है उसके बाद 
ख़ुद नया आशियाँ बनाते है 
माँ के साये से दूर जाकर ये 
अपनी दुनियाँ में डूब जाते है 

अपनी परवाज़ में मगन है अब 
ये खुला आसमान इनका है 
और सारा जहान इनका है 
हर घड़ी इम्तेहान इनका है

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