Saturday 24 September 2011

जगह इक ऐसी बताओ जहाँ खुदा ही न हो

यह तुम से किस ने कहा है कोई ख़ता ही न हो
बस इतनी शर्त है दुनिया को कुछ पता ही न हो

गुनाह करना है सबकी निगाह से बच कर
जगह इक ऐसी बताओ जहाँ खुदा ही न हो

हम अपने दौर के इन रहबरों से बाज़ आये
वह क्या दिखाएगा रस्ता जिसे पता ही न हो

वह कैसे समझे ग़मे इश्क का मज़ा क्या है
के जिस ने दर्दे मोहब्बत कभी सहा ही न हो

"सिया" वह शख्स करेगा किसी से ख़ाक वफ़ा
के जिस के दिल में कोई जज़ब्ये वफ़ा ही न हो
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Thursday 22 September 2011

प्रार्थना


हे जगत निर्माणकर्ता 
कुछ हमें भी ज्ञान दो..
सच बड़ा दुखी है    मानव 
आप आकर ध्यान दो .....

सब रहें खुशहाल भी 
और सब रहें आनंद में 
ये  कहें दोहें सभी 
ये सार भी है छंद में 
इस धरा पर जो भी आये 
आप उसको मान दो.......

न कोई छोटा, बड़ा हो 
इस तेरे संसार में 
हर कोई जीवन गुज़ारे 
बस इबादत प्यार में 
आदमी को आदमी सा 
आप ही सम्मान दो .......

हो कई रूपों में लेकिन
तुम नज़र आते नहीं 
हो अखिल संसार में 
बस मेरे घर आते नहीं 
मुझपे भी कल्याण की 
चादर ज़रा सी तान दो ....

हर घड़ी तेरा ही ख्याल रहा

रात दिन बस मेरा यह हाल रहा
हर घड़ी तेरा ही ख्याल रहा

ज़ुल्म में तू भी बेमिसाल रहा
सब्र में मेरा भी कमाल रहा

मैं हूँ बरबाद और तू आबाद
कब मुझे इसका कुछ मलाल रहा

उस से मैं उम्र भर न पूछ सकी
दिल का दिल में ही इक सवाल रहा

मुझ से इक दिन भी वो खफा न हुआ
कितना अच्छा यह मेरा साल रहा

साथ उसका था हर कदम पे सिया
फिर भी दिल ये मेरा निढाल रहा

तनहा ही भटक जाएंगे


अब जो बिखरे तो फिजाओं में सिमट जाएंगे 
ओर ज़मीं वालों के एहसास से कट जाएंगे 

मुझसे आँखें न चुरा, शर्म न कर, खौफ न खा 
हम तेरे वास्ते हर राह से हट जाएंगे 

आईने जैसी नजाकत है हमारी भी सनम 
ठेस हलकी सी लगेगी तो चटक जाएंगे 

हम-सफ़र तू है मेरा, मुझको गुमाँ था कैसा 
ये न सोचा था कि तनहा ही भटक जाएंगे 

प्यार का  वास्ता दे कर  मनाएगी 'सिया' 
मेरे  जज़्बात से कैसे वो पलट जाएंगे

जीने के बहाने आ गए

सामने आँखों के सारे दिन सुहाने आ गए
याद हमको आज वह गुज़रे ज़माने आ गए

आज क्यूँ उन को हमारी याद आयी क्या हुआ
जो हमें ठुकरा चुके थे हक़ जताने आ गए

दिल के कुछ अरमान मुश्किल से गए थे दिल से दूर
ज़िन्दगी में फिर से वह हलचल मचाने आ गए

ग़ैर से शिकवा नहीं अपनों का बस यह हाल है
चैन से देखा हमें फ़ौरन सताने आ गए

उम्र भर शामो सहर मुझ से रहे जो बेख़बर
बाद मेरे क़ब्र पे आंसू बहाने आ गए

हैं "सिया' के साथ उसके शेर और उसकी ग़ज़ल
हाथ अब उसके भी जीने के बहाने आ गए

Wednesday 14 September 2011

आदमी क्यों इस क़दर मग़रूर है

क्यों वह ताक़त के नशे में चूर है
आदमी क्यों इस क़दर मग़रूर है।

गुलसितां जिस में था रंगो नूर कल
आज क्यों बेरुंग है बेनूर है।

मेरे अपनों का करम है क्या कहूं
यह जो दिल में इक बड़ा नासूर है।

जानकर खाता है उल्फ़त में फरेब
दिल के आगे आदमी मजबूर है।

उसको "मजनूँ" की नज़र से देखिये
यूँ लगेगा जैसे "लैला" हूर है।

आप मेरी हर ख़ुशी ले लीजिये
मुझ को हर ग़म आप का मंज़ूर है।

जुर्म यह था मैं ने सच बोला "सिया"
आज हर अपना ही मुझ से दूर है।

अपनी माँ को याद करते हुए एक बेटी ने अपने जज़्बात लिखे हैं


माँ तू साथ हैं मेरे तुझे मेरे हर ग़म की खबर है 
 बिन तेरे है धूप कड़ी और मुश्किल  सफ़र है 

सर पे मेरे आज तेरी ममता की ठंडी छावं नहीं 
कैसे  झुलसा सा मन कैसी ये तपिश का असर है 

रात को सोते हुए ख्वाब से जब मैं  घबरा जाती 
क्यों घबराए  मैं पास हूँ लाडो, किस बात का डर है 

जब से गयी तू मां मैंने कभी ना खाया मन से 
 हाथो में जो स्वाद तेरे, वो ना किसी में  हुनर है 

आज सिया के पास नहीं तू ,तेरी यादे है बाकी 
माँ तुझसा कोई भी तो आता ना नज़र है 

हिंदी दिवस पर...

क्यों दिखावे का ये जीवन ढ़ो रहे हो!
नकली चेहरा क्यों लगा के रो रहे हो!
जो विरासत में मिली हिंदी हमें हैं,
उस धरोहर को भला क्यों खो रहे हो!
नाम अपने देश का हिन्दुस्तान हैं
भूल कर उसको कहाँ तुम सो रहे हो
दे रही आवाज तुमको मातृभूमि
अपनी हिंदी के ही दुश्मन हो रहे हो!"

"
आज हिंदी दिवस पर संकल्प लें कि, हमे अधिकाधिक रूप में हिंदी को व्यव्हार लाना है! राष्ट्रभाषा के गौरव को, जीवित रखना है!"



अपनी तहजीब जुबान अपनी न खो जाये कहीं
इस विरासत को सलीके से सभाले रखना

विश्व हिंदी दिवस पर यह संकल्प लीजिये
अपनी मात्रभाषा हिंदी को नव जीवन देगे ...

Sunday 11 September 2011

यह डर लगता है

काम कुछ ऐसा न कर जाऊं यह डर लगता है
दिल से तेरे न उतर जाऊं यह डर लगता है
फासले मुझको हैं मंज़ूर मगर ऐ हमदम 

जीते जी खुद ही न मर जाऊं ये डर लगता हैं

बड़ी मुश्किल से संभाला है दिल_ए _नादाँ को 
अब कहीं फिर न बिखर जाऊ यह डर लगता है

सकूं नसीब है जब तक तुम्हारे साथ हूँ मैं
बिछड़ के तुझसे किधर जाऊ यह डर लगता है

ए सिया दीद का वादा जो किया हैं मैंने
देख के उसको न मर जाऊ ये डर लगता है

Friday 9 September 2011

सब का ग़म अपना ग़म बनाना है

ज़िंदगी इस तरह बिताना है
अश्क पीना हैं मुस्कुराना हैं

आज फिर उसके पास जाना है
एक रूठे को फिर मानना है

हो के औरों के दरद-ओ-ग़म में शरीक
सब का ग़म अपना ग़म बनाना है

सिर्फ अपने गले लगे तो क्या
गैर को भी गले लगाना है

दर्द में कोइ मेरे साथ नहीं
साथ खुशियों में यह ज़माना है

जिस्म पर सर रहे, रहे न रहे
झूठ को जड़ से ही मिटाना हैं

क्यों सिया ज़ख्म चाहती हो नया
अपनी हिम्मत को आज़माना है ?...

Monday 5 September 2011

अपनों से उम्मीद ही कम रखती हूँ!

मैं हिफाज़त से तेरा दर्दो अलम रखती हूँ
और खुशी मान के दिल में  तेरा ग़म रखती हूँ।

मुस्कुरा देती हूँ जब सामने आता है कोई
इस तरह तेरी जफ़ाओं का भरम रखती हूँ।

हारना मैं ने नहीं सीखा कभी मुश्किल से
मुश्किलों आओ दिखादूं मैं जो दम रखती हूँ।

मुस्कुराते हुए जाती हूँ हर इक  महफ़िल में
आँख को सिर्फ़ मैं तन्हाई में नम रखती हूँ

है तेरा प्यार इबादत मेरी  पूजा मेरी
नाम ले केर तेरा मंदिर में क़दम रखती हूँ।

दोस्तों से न गिला है न शिकायत है "सिया"
क्यों के मैं अपनों से उम्मीद ही कम रखती हूँ!

Thursday 1 September 2011

दिल दी गल्ला लोका नू सुनावा क्यों..


हाल दुनिया नू अपना मैं वखावा क्यो
दिल  दी गल्लां लोका नू सुणावा क्यों 

मेरा वजूद, मेरा गुमान, मेरी गैरत 
किसी दी नज़र विच खुद नू गिरावां क्यों 

मैं आप वेखदी या की कमी मेरे अन्दर 
मैं किसी होर ते इलज़ाम लगावां क्यों 

कोई यकीन करके, राज़ दे दसदा अपना 
छुपा लया दिल विच किसी नू बतावा क्यों 

बड़े नसीब नाल मिलदे ने सच्चे यार लोगों 
जे मिला दित्ता रब ने ओसनू भुलावा  क्यों