Thursday 21 April 2011

रफ्ता रफ्ता


देखिये दिल किस क़दर अब बेख़बर होने लगा
आपके ख़्वाबों में रातों का सफ़र होने लगा

क्या है ये दुनिया क्या दुनियादारियां किसको पता
अब हमारा उन ख़तों में बस गुज़र होने लगा

क्या ख़ुशी कैसी मसर्रत इस जहां में दोस्तों
रफ्ता रफ्ता दर्द ही जब हमसफ़र होने लगा

ज़िन्दगी से हम ख़ुशी की भीक क्यूं मांगे भला
जब ये रिश्ता प्यार का ही मुख़्तसर होने लगा

उफ़ ये दुनिया प्यार के माने कभी समझी नहीं
तंज़ आख़िर अब सिया के अश्क पर होने लगा

1 comment:

  1. सिया, आपकी ये ग़ज़ल 'रफ्‍ता रफ्‍ता' तो कमाल की है, क्‍या अलफाज दिये हैं आपने अपने अहसास को। आप ही की तरह खूबसूरत। बधाई।

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