देखिये दिल किस क़दर अब बेख़बर होने लगा
आपके ख़्वाबों में रातों का सफ़र होने लगा
क्या है ये दुनिया क्या दुनियादारियां किसको पता
अब हमारा उन ख़तों में बस गुज़र होने लगा
क्या ख़ुशी कैसी मसर्रत इस जहां में दोस्तों
रफ्ता रफ्ता दर्द ही जब हमसफ़र होने लगा
ज़िन्दगी से हम ख़ुशी की भीक क्यूं मांगे भला
जब ये रिश्ता प्यार का ही मुख़्तसर होने लगा
उफ़ ये दुनिया प्यार के माने कभी समझी नहीं
तंज़ आख़िर अब सिया के अश्क पर होने लगा
सिया, आपकी ये ग़ज़ल 'रफ्ता रफ्ता' तो कमाल की है, क्या अलफाज दिये हैं आपने अपने अहसास को। आप ही की तरह खूबसूरत। बधाई।
ReplyDelete