वो जिससे जीते जी पूछा नहीं की क्या ग़म है
वो अब नहीं है तो महफ़िल में कैसा मातम है
हमारी नींद भी हमको सुक़ून दे कैसे
हमारी आँखों में आया जो ख्वाब भी नम है
न पूछो मुझसे मेरी तुम उदासियों का सबब
जो खा रहा है मुझे रात दिन वो क्या ग़म है
मैं अपने आप से तो मुतमइन नहीं लेकिन
तुम्हारी ज़ात पे मेरा यक़ीन-ए-मोहकम है
कहूँ मैं कैसे मेरी उम्र तुझको लग जाए
मैं जानती हूँ मेरी ज़िंदगी बहुत कम है
मैं जानती हूँ मेरी ज़िंदगी बहुत कम है
नहीं उजाले मुक़द्दर में है सिया तेरे
जलाया धूप ने जिसको तू ऐसी शबनम है
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