ज़िंदगी तुझसे मैं शर्मिंदा हूँ
सिर्फ कहने के लिए ज़िंदा हूँ
आज भी करती हूँ यक़ीं सब पर
जाने किस दौर की बाशिंदा हूँ
घर के आँगन की बात बाहर की
आज इस बात पे शर्मिँदा हूँ
रास जिसको न उड़ना आया हो
मैं क़फ़स का वहीं परिंदा हूँ
ख़ुद पे हैरत सी हो रही है सिया
खा के इतने फ़रेब ज़िंदा हूँ
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