Sunday 17 February 2013

फिर भी जाने क्या कमी जो दिल कहीं लगता नहीं

फूल इक उम्मीद का है जो के मुरझाया नहीं 
दूर तक अब रेत हैं सेहरा की और साया नहीं 

यूं तो दुनिया की सभी हैं नेमते हासिल मुझे 
फिर भी जाने क्या कमी जो दिल कहीं लगता नहीं 

मुफ़लिसी अब तो रहेगी उम्र भर मेरे क़रीब 
सर के ऊपर अब मेरे माँ बाप का साया नहीं 

आप क्यों देते रहे झूठे दिलासे ही मुझे 
आप को जब लौट कर वापस ही आना था नहीं

अब न बाकि है कोई जीने की मुझ में आरज़ू
बेसबब युहीं जिए जाना मुझे भाता नहीं

हाँ मेरी तन्हाइयों के साथ मैं तनहा रहू
दूर तक अपना कोई मुझको नज़र आता नहीं

चोट खाए हो गये कितने ज़माने फिर भी क्यों
टीस उट्ठे है अभी तक ज़ख्म भी ताज़ा नहीं

इक ज़रा सी बात पर ही चीखने लगते हैं आप
आपने तन्हाइयों का रक्स ही देखा नहीं

दायरों की क़ैद में दिल तो कभी रहता नहीं
इस हकीक़त को सिया क्यों कर कोई समझा नहीं

fhool ik umeed ka hai jo ke murjhaya nahi
door tak ab ret hain sehra ki aur saya nahin

yoon to duniya ki sabhi hain nemate hasil mujhe
fir bhi jane kya kami jo dil kaheen lagta nahi'n

muflisi ab to rahegi umr bhar mere qareeb
sar ke upar ab mere ma baap ka saya nahin

aap kyun dete rahe jhoothe dilaasey hi mujhe
aap to jab laut kar wapas hi aana tha nahin

ab na baki hai koyi jeene ki mujh mein aarzoo
besasab yuheen jiye jana mujhe bhata nahin ...

haan meri tanhaayon ke sath main tanha rahu
door tak mujhko koyi apna nazar aata nahin

chot khaye ho gaye kitne zamane fir bhi kyun
tees utthe hai abhi tak zakham bhi taaza nahin

aaj bhi uske he haq kar rahi hoon main dua
wo jo mere dard he aaj tak samjha nahin

ik zara si baat par hi cheekhne lagne hain aap
aapne tanhaiyon ka raqs tak dekha nahi

dayron ki qaid mein dil to kabhi rahta nahi
is haqeeqat ko siya kyo kar koyi samjha nahi

siya

Saturday 9 February 2013

बोझ हस्ती का ही जब हमसे उठाया न गया


दिल में सोयी हुई यादों को जगाया न गया 
दश्त में शहर ए तमन्ना को उगाया न उगाया 

अपनी महफ़िल से भला खाक़ उठाती तुमको
 बोझ हस्ती का ही जब हमसे उठाया न गया 

इतना मजबूत रहा है तेरी यादों का हिसार 
ज़श्न ए तन्हाई भी अब हमसे मनाया न गया 

कर रहे है वो सभी प्रयावरण पे तक़रीर 
पेड़ गमले में कभी जिनसे लगाया न गया 

शोर ए मातम था बहोत आपकी बस्ती में ज़नाब
 ऐसे माहौल में हमसे भी तो गाया न गया 

दिल के जज़्बात को तहरीर किया है फिर भी 
मुझसे आगे मिरी रुसवाई का साया न गया 

क़ैद खाने के तरानों से बग़ावत उभरी 
ज़ुल्म से फ़िक्र को क़ैदी तो बनाया न गया 

मैंने इस दिल में बसा रक्खी हैं तेरी यादे
 दूसरा कोई भी इस शहर में आया न गया ...