Friday 23 December 2011

तिरे सवाल के यूं तो जवाब इतने हैं

किताबे जीस्त में ज़हमत के बाब इतने हैं 
ज़रा सी उम्र मिली है अज़ाब इतने हैं .

जफा फरेब तड़प दर्द ग़म कसक आंसू ..
हमारे सामने भी इन्तखाब इतने हैं 

समन्दरों को भी पल में बहाके ले जाए
हमारी आँख में आंसू जनाब इतने हैं

नकाबपोशों की बस्ती में शख्सियात कहाँ
हरेक शख्स ने पहने नकाब इतने हैं

हमारे शेर को दिल की नज़र की हाजत है ...
हरेक लफ्ज़ में हुस्नो-शबाब इतने हैं

हमें तलाश है ताबीर की मगर हमदम
छिपा लिया है सभी कुछ ये ख्वाब इतने हैं

कभी ज़ुबान खुली तो बताएँगे हम भी
तिरे सवाल के यूं तो जवाब इतने हैं

.तमाम कांटे भरे हैं हमारे दामन में
तुम्हारे वास्ते लाये गुलाब इतने हैं

मैं चाह कर भी नहीं कर सकी कभी पूरे
तुम्हारी आँख में पोशीदा ख्वाब इतने हैं

कभी ज़ुबान खुली तो बताएँगे हम भी
हमें जनाब से लेने हिसाब इतने हैं

\वफ़ा के बदले वफ़ा क्यूँ 'सिया' नहीं मिलती
सवाल एक है लेकिन जवाब इतने हैं

Tuesday 20 December 2011

चाहने वाले ज़माने में कहाँ मिलते हैं

ढूंढिए लाख मगर दोस्त कहाँ मिलते हैं 
जिस तरफ जाइए बस दुश्मन ए जां मिलते हैं 

मेरे एहसास मेरे दिल को जवां मिलते हैं 
मुस्कुराते हुए मिलते हैं जहाँ मिलते हैं 

जुस्तजूं रहती हैं खुद को भी हमारी अपनी
खो गए हम तो किसी को भी कहाँ मिलते हैं

उन से कह दीजे मेरे प्यार की कुछ कद्र करें
चाहने वाले ज़माने में कहाँ मिलते हैं

आज तो छावं में बैठी हूँ अपने आँगन में
वक़्त की धूप के क़दमों के निशाँ मिलते हैं

गुफ़्तगू का ना सलीका है ना आदाब कोई
आज के दौर में क्या एहले _जबां मिलते हैं

जां लुटा देने की जो करते हैं बाते अक्सर
वक़्त पड़ जाये तो वो लोग कहाँ मिलते हैं

मेरी खुद्दार तबीयत को गवारा ही नहीं
वहाँ चलना जहां क़दमों के निशाँ मिलते हैं .

पहले अश'आर सिखा देते थे जीने की कला -
आजकल ऐसे खयालात कहाँ मिलते हैं

ढलते सूरज को जो देखूं तो ख्याल आता है
उम्र ढलने के भी चेहरे पे निशाँ मिलते हैं

चंद चेहरे जो चमकते है बहुत महफ़िल में
उनको तन्हाई में देखो तो धुवां मिलते हैं

सिल गए होंठ मेरे ज़ख्म सिलें या ना सिलें
इश्क वालों को सिया दर्द यहाँ मिलते हैं

siya

सभी ने जुबां पर लगाए हैं ताले .

यही कह रहे हैं सभी अज्म वाले 
मुझे आजमा ले मुझे आजमा ले .

यहाँ सच का जैसे रिवाज उठ गया है
सभी ने जुबां पर लगाए हैं ताले .

न मंदिर से निस्बत न मस्जिद से रिश्ता
जले घर मैं चूल्हा , मिलें दो निवाले .

भरोसा है या रब तिरी रहमतों का
ये जीवन की कश्ती है तेरे हवाले .

पडोसी है भूखा ये सोचा नहीं है
तो किस काम के हैं ये मस्जिद शिवाले .

किसी माँ का दिल कैसे ये सह सकेगा
कि बच्चों का घर और खाने के लाले .

Monday 12 December 2011

फिर से जीने की आरज़ू होगी.

बात होगी तो रू -ब- रू होगी
आँखों आँखों में गुफ्तगू होगी .

बात चलती रहेगी ग़ालिब की
मीर की भी कभू कभू होगी .

सामने मेरे जब भी तुम होगे
फिर से जीने की आरज़ू होगी.

जिस में मंजिल का कोई ज़िक्र न हो
एक ऐसी भी जुस्तजू होगी..

काम आएगी मेरी जिंदादिली -
जब कभी मौत रू -ब -रू होगी

आपको मैं संभाल कर रक्खूं .
इसमें मेरी भी आबरू होगी .

हर क़दम फूँक फूँक रखना सिया
सब की नज़रों में सिर्फ तू होगी .

Thursday 8 December 2011

मुझको उसपर है य़की जिस को खुदा कहते हैं

उसके हर ज़ुल्म को किस्मत का लिखा कहते हैं 
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं 

है इबादत किसी इन्सां से मोहब्बत करना 
जाने क्यूँ लोग मोहब्बत को खता कहते हैं 

और होंगे जिन्हें किस्मत से नहीं कोई उमीद
मुझको उसपर है य़की जिस को खुदा कहते हैं

मांगना भीख गवारा नहीं खुद्दार हूँ मैं
मेरी खुद्दारी को क्यूँ लोग अना कहते हैं

कारवां वालों को इंसान की पहचान नहीं
जिसने भटकाया उसे राहनुमा कहते हैं

देखते ही जिसे ईमान चला जाता है
हाँ उसी को किसी काफ़िर की अदा कहते हैं

उनका अंदाज़े सितम भी है बहुत खूब सिया
ज़हर को ज़हर नहीं कहते दवा कहते हैं